Getting your Trinity Audio player ready...
|
साल 1914 से पहले यूरोप, अमरीका और इनके उपनिवेशों में जाने के लिए किसी वीज़ा, पासपोर्ट की जरूरत नहीं होती थी. फिर पहला विश्व युद्ध हुआ और हालात बदल गए.
देशों ने अपने को समेट लिया और राष्ट्रीय सीमाएं कठोर हो गईं. इसके बाद आर्थिक तंगी और मंदी का दौर शुरू हुआ. राष्ट्रवाद का भाव अति-राष्ट्रवाद के चरम पर जा पहुंचा और यह दूसरे विश्वयुद्ध का कारण बना. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद आपसी संबंधों वाली, एक दूसरे पर निर्भर और संस्थागत वैश्विक दुनिया का रूप बना. पिछले 75 सालों से उतार चढ़ाव के बाद भी यही वैश्विक व्यवस्था बरकरार रही.
लेकिन जॉन्स हॉपकिंस यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर स्टीव हैंकी का कहना है कि नरेंद्र मोदी ने बिना पहले से प्लान के लॉकडाउन लागू कर दिया गया. वास्तव में मुझे लगता है कि मोदी यह जानते ही नहीं हैं कि ‘योजना’ का मतलब क्या होता है. यहां पढ़ें प्रोफ़ेसर हैंकी का नज़रिया.
कोरोना वायरस से उपजी महामारी दुनिया की मौजूदा वैश्विक व्यवस्था को पहले जैसी स्थिति में करने की धमकी दे रही है. पहले विश्व युद्ध के बाद, दुनिया के देश आत्मकेंद्रित और सत्ता समर्थक हुए थे. कुछ राजनीतिक वैज्ञानिकों ने कोरोना वायरस के समय में ऐसी ही दुनिया के उदय होने की भविष्यवाणी की है जिसमें दुनिया कहीं ज़्यादा सिमटी और संकीर्ण राष्ट्रवाद से भरी होगी. ‘राष्ट्रों की वापसी’ नई व्यंजना है. अर्थशास्त्री भूमंडलीकरण और मुक्त व्यापार के दिन लदने की बात कह रहे हैं.
इतनी निराशा कहां से उपजी है? महज 0.125 माइक्रो व्यास वाले कोरोना वायरस से, जो हमारी पलक का एक हज़ारवें हिस्से के समान है? शायद नहीं. एक वायरस ने नहीं, बल्कि दुनिया के दो सबसे शक्तिशाली देशों ने, पूरी दुनिया के आत्मविश्वास को हिला कर रख दिया है. हूवर इंस्टिट्यूशन के अमरीकी इतिहासकार निएल फर्ग्यूसन ने इन दोनों देशों को ‘चीमेरिका’ कहते हैं.
चीन के तीन सिद्धांत
चीनी नेतृत्व पर दुनिया से सच्चाई छिपाने के आरोप लग रहे हैं जिसके चलते वायरस दूसरे देशों तक पहुंचा और महामारी के रूप में बदल गया. चीन के दावों को चुनौती दी जा रही है और उनके आंकड़ों पर सवाल उठ रहे हैं. चीन के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक़ वहां कोरोना से संक्रमित मरीजों की संख्या 82 हजार है और 4500 लोगों की मौत हुई है. हालांकि वॉशिंगटन स्थित थिंक टैंक अमरीकन इंटरप्राइज इंस्टिट्यूट के डेरेक सिजर्स ने कहा है कि चीन में संक्रमित लोगों की संख्या 29 लाख तक हो सकती है.
चीन उन कुछ देशों में एक है जो किसी भी पारंपरिक पाठ्यक्रम का पालन नहीं करते. चीन अपने यहां ऐतिहासिक अनुभवों को अपनाने की बात करता है. चीन आज जो भी है वह एक लंबी क्रांति की उपज है जिसके बाद माओ ने 1949 में चीन की सत्ता पर कब्जा जमाया था.
दुनिया को लेकर चीन का नज़रिया तीन महत्वपूर्ण सिद्धांतों से निर्देशित होता है- जीडीपीवाद, चीन को केंद्र में रखने का भाव और ख़ुद को लेकर असाधारण क्षमता का बोध. ये तीनों सिद्धांत माओ की क्रांति से ही निकले थे. डांग शिआयो पिंग ने 1980 के दशक में घोषणा की, ‘सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत आर्थिक विकास है.’ चीनी अर्थशास्त्री से जीडीपीवाद कहते हैं.
दूसरा सिद्धांत चीन को खुद में केंद्र में रखने के भाव पर आधारित है. माओ ने स्वतंत्रता, स्वायत्तता और आत्म निर्भरता पर जोर दिया.
वैंग शेन के संगीत वाले मशहूर चीनी देशभक्ति गीत ‘गेचांग जुगुओ’ के बोल जिसमें पहाड़, पठार और यंगतजे और ह्वेंग नदी पर बसे विशाल और ख़ूबसूरत चीन को अपना देश कहा गया है, को हर चीनी शब्दशः अपने जीवन में उतारता है. तीसरा सिद्धांत चीन की असाधारण क्षमता से जुड़ा है. चीन दूसरों से कुछ सीखने में यक़ीन नहीं रखता. क्रांति के समय में माओ के दिए आदेश- ‘अभ्यास और बस करो’ का पालन करता है. चीन के नेताओं का ज़ोर रहता है कि अपनी समस्याओं का हल अपनी बुद्धिमता से निकले.
एशियाई देश कोरोना से लड़ने में बेहतर
ऐतिहासिक समानाताएं हमेशा सही नहीं हो सकतीं. चीन का राष्ट्रवादी नज़रिया काफ़ी हद तक दूसरे विश्व युद्ध से पहले वाले जर्मनी के नज़रिए से मेल खाता है. जातीय श्रेष्ठता, ऐतिहासिक दावे और आर्यों की असाधारणता, इन सबसे दुनिया 1930 के दशक में काफ़ी परिचित थी. उस ज़माने में कई देशों के लिए यह आम बात थी.
जब हिटलर ने पूर्व चेकोस्लोवाकिया के जर्मन बोली वाले हिस्से सुडेटेनलैंड पर कब्जा कर लिया तो यूरोप ने हिटलर को चुनौती देने के बदले उसे प्रसन्न करने का फ़ैसला लिया. रुजवेल्ट दूर से ऐसा होते देख रहे थे जबकि ब्रिटेन, फ्रांस और इटली म्यूनिख समझौते के तहत हिटलर के लिए जश्न मना रहे थे. अमरीकी राष्ट्रपति फ्रैंकलीन रूजवेल्ट ने तो हिटलर की प्रशंसा करते हुए कहा था, “मुझे यक़ीन है कि दुनिया भर के लाखों लोग आपकी कार्रवाई को मानवता के लिए ऐतिहासिक सेवा के तौर पर पहचानेंगे.”
अचरज नहीं है कि हिटलर ने महज एक साल के अंदर ही अपने वादे से पलटते हुए ज़्यादा आक्रामकता दिखाना शुरू कर दिया. इससे ही दूसरे विश्व युद्ध की शुरुआत हुई. 1939-40 में जो स्थिति ब्रिटेन की थी वही आज अमरीका की है. आख़िर में जगने से पहले ट्रंप ने कोरोनावायरस को अमरीका में तबाही मचाने की अनुमति दी है. 28 फ़रवरी को ट्रंप साउथ कैरोलिना में अपने समर्थकों से महामारी फैलने की चेतावनी पर ध्यान नहीं देने को कह रहे थे.
वे महामारी की चेतावनी को मीडिया का उन्माद बता रहे थे और कह रहे थे कोरोना का ख़तरा नया धोखा साबित होगा. वहीं बेल्ट एंड रोड का लाभ लेने के लिए गलबहियां करते चीन तक पहुंचने वाले यूरोपीय देश, महामारी रोकने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
दिलचस्प यह है कि जो देश इस संक्रामक रोग का डट कर सामना कर रहे हैं, वे ज्यादातर एशियाई लोकतांत्रिक देश हैं. दक्षिण कोरिया इसका नेतृत्व कर रहा है जो छह गुना ज़्यादा आबादी वाले अमरीका की तुलना में हर दिन ज़्यादा टेस्ट कर रहा है. सिंगापुर ने टेस्टिंग के ज़रिए महामारी पर अंकुश लगाने में कामयाब रहा. हॉन्गकॉन्ग और ताइवान ने सार्स वायरस के पिछले अनुभवों से सीखते हुए कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए समय से कारगर क़दम उठाए.
बेहतर संघर्ष की उम्मीद?
वहीं दूसरी ओर, भारत ने कोरोना को चुनौती देने के लिए लोकतांत्रिक सक्रियता का उदाहरण पेश किया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्य सरकारों के साथ मिलकर लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग के प्रावधानों को लागू करने में कामयाब रहे हैं. वे आगे बढ़कर नेतृत्व कर रहे हैं और उन्हें आमलोगों का पूरा समर्थन हासिल है. 1.3 अरब की आबादी वाले देश में कोरोना से अब तक 21 हज़ार से ज़्यादा लोग संक्रमित हैं. प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी ने कोई मनमाना और अधिकारवादी फैसला नहीं लिया है.
हालांकि इस्लामोफोबिया जैसे उकसावे और ग़लत सूचना फैलाने की कोशिशें भी हुई हैं लेकिन ऐसे उकसावों का सामना मोदी ने पूरी गंभीरता, संयम और आशावादी नज़रिए से किया है. उन्होंने यह साबित किया है कि दूरदर्शी नेतृत्व वाले लोकतंत्र उदारवादी मूल्यों से समझौता किए बिना ऐसी चुनौतियों का सामना कर सकते हैं.
जो नई वैश्विक व्यवस्था आकार ले रही हैं उसमें भारत, अमरीका और जर्मनी जैसे देशों के साथ मिलकर प्रधानमंत्री मोदी के सुझाए मानव संसाधन केंद्रित विकास सहयोग के आधार पर नई दुनिया के निर्माण में अहम भूमिका निभा सकता है. यह समय नए अटलांटिक चार्टर का है. पर्यावरण, स्वास्थ्यसेवा, तकनीक और लोकतांत्रिक उदारवाद नए अटलांटिक चार्टर के आधार बिंदु हो सकते हैं.
आज चीन के सामने भी एक अवसर है. दुनिया भर में इसकी आलोचना हो रही है. देश के अंदर भी अशांति बढ़ रही है. शी जिनपिंग के नेतृत्व को लगातार चुनौतियां मिल रही हैं. समय आ गया है जब चीनी नेतृत्व को डेंग के आदेश की ओर मुड़ना चाहिए, जिसमें ‘उन्होंने नदी पार करने के लिए पत्थरों को महसूस करने’ की बात कही थी. चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में एक मुहावरा चलता है- लक्सियन दूझेंग यानी लाइन स्ट्रगल. कुछ लोगों के लिए यह सत्ता संघर्ष भी होता है. लेकिन यह नई पार्टी लाइन के लिए संघर्ष को भी दर्शाता है. अतीत में ऐसे कई संघर्ष हुए भी हैं. सवाल यही है क्या दुनिया इस बार बेहतर संघर्ष की उम्मीद करे?
(लेख मूल रूप से 23 अप्रैल, 2020 को बीबीसी न्यूज हिंदी द्वारा प्रकाशित किया गया था | व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं)